कभी कभी जीवन मे ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं, कि इन्सान सोचने पे विवश हो जाता है, कि क्या करे क्या नही, मनुष्य कितना मजबूर हो जाता है खुद के बनाए हुए "जिन्दगी के नियमों "से ही। निकलना भी चाहे तो वह जिन्दगी की इन उलझी लडियो से निकल नहीं पाता। रिश्ते और नातों की इस अनसुलझी लड़ मे न जाने कितने लोग अपनी खुशियों की बलि दे जाते हैं। जिंदगी उनके लिए बोझ बन जाती है। रंगीन दुनिया दिखने में तो चकाचौंध सी दिखती है लेकिन न जाने कितनी विस्फोटक लड़ियो को अपने अंदर समेटे रखती है। अगर यह लड़ियां सुलझने लगे तो न जाने कितने लोगों का जीवन खत्म हो जाएगा। अजीब विडंबना है कि मनुष्य जन्म तो स्वतंत्र लेता है, अबोध जीवन में कितना खिलखिलाता है, बेफ़िक्र सा उस उम्र में यही सोचता है कि जिंदगी कितनी खूबसूरत है। क्योंकि ना तो वह उस वक्त रिश्ते नातों का महत्व जानता है ना ही दुनियादारी का मतलब। दुख, वेदना जैसी कोई तकलीफ उसे छू ही नहीं पाती। उसे केवल सुखमय सफर - ए - जिंदगी लगता है। निकलता है जब वह अल्लड़पन से बाहर तो रिश्तो की अनूठी परंपरा से बधंने लगता है और यहीं से सुख-दुख की कहानी जिंदगी भर उसे ना सोने देती है ना जीने देती है। रिश्ते - नाते दुनियादारी ही अगर जिंदगी के बोझ के कारण हैं तो क्यों नहीं मनुष्य को बिना रिश्तो के रहने की तालीम दी जाए। जैसे जन्म से बचपन तक का सफर था उसका। क्यों ना उसे बिना मतलब के रिश्तों से दूर रखा जाए। क्यों ना ऐसी शिक्षा हमारे समाज में दी जाए जो दुखी को और दुखी व सुखी को और सुखी ना बनाती हो। अगर मिलती है यह जिंदगी एक बार तो क्यों नहीं उसे स्वतंत्र जिंदगी जीने दी जाए। यहां सब एक दूसरे को आरोप प्रत्यारोप करते हैं, पूरी जिंदगी निकाल देते हैं साजिशों और षड्यंत्रों में, तो क्यों ना उस मनुष्य को यह सिखाया जाए कि वह स्वतंत्र पैदा हुआ था, स्वतंत्र रहना ही उसका वजूद है और उसी के बलबूते उसे जीवन जीना है। क्यों ना उसे किसी से उम्मीदों भरी दुनिया से दूर स्वावलंबन का पाठ पढ़ाया जाए ताकि वह किसी भी क्षण ना टूटे, ना उसकी कोई लिप्सा उसे तगं करे। मरने मारने को उतारू यह दुनिया क्यों नहीं एक दूसरे को सुख चैन से रहने देती,। जब नियमों से सब संचालित है तो क्यों नहीं उन्हीं नियमों को ऐसा बनाया जाए जिससे सब जिंदगी को हंसते खेलते गुजार जाए एक छोटे बच्चे की तरह। बेखबर, बेपरवाह सा। किसी संस्था को चलाने के लिए, मुनाफा कमाने के लिए नियमों में बदलाव किया जाता है तो क्यों नहीं हमारी सोसाइटी ऐसे नियम बनाती जो आदमी को आदमी ही रहने दे, उसे जानवर ना बनाएं। कुछ लोगों की जिंदगी इतनी बेरहम बोझिल बदहवास सी महसूस होती है तो क्यों नहीं उसे भी यह एहसास कराया जाए कि जिंदगी बहुत खूबसूरत है।इन सब से परे भी जिन्दगी है,खुबसूरत सी। उस खुशबूदार जिन्दगी को जीने का हक उन्हें भी नसीब होना चाहिए। आखिर कैसे हैं ये जिन्दगी के नियम? किसने बनाये, क्यों बनाये, कैसे बनाये? मैंने, आपने हमने या फिर जरूरतों ने? जिसने भी बनाए हो जैसे भी बनाए हो जहां भी बनाए हो खुद के स्वरूप , अनुरूप ही बनाए होगें। लेकिन हां अब उन नियमों को बदलने की जरूरत है उस समाजको, हमारे अपनों को। । डर डर कर रहना, लुकाछिपी, छीना झपटी, मारकाट, लूट कशोट यह सब भी तो नियमों में आ गए है आज। तो क्यों नहीं बदले जाते आखिर ये जिंदगी के नियम, उसे जीने के नियम? इस बदलते परिदृश्य में विकास की तो तेज रफ्तार है, लेकिन विनाश भी बाहें फैलाये हर पल तैयार है। हम ये कैसी जिंदगी जीने चल पड़े जहां स्पीड तो तेज है लेकिन टायर का माल (मनुष्य की स्थिति) कभी भी जवाब दे सकता है। क्यों हम वेद पुराण रामायण महाभारत की बात करते हैं, क्यों हम अतीत और भविष्य मे उलझे पडे हैं क्यों हम आज की स्थिति और परिस्थिति के अनुसार नहीं जी पा रहे। हम जिस युग में हैं उसी की बात करें, उसी के अनुरूप जिन्दगी के सफर को तरोताजा करे जिससे आज के मनुष्य को जिंदगी जीने मे आनंद आए ना कि उसका बोझा ढोया जाए।
-*-*-*-*-