जहां देखो जिधर देखो एक गमगीन सा माहौल देखने को मिला। फेसबुक ट्विटर व्हाट्सएप सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर एक ही चर्चा- सुसाइड /आत्महत्या। चर्चा भी क्यों ना हो वह एक युवा कलाकार था जिसने संघर्ष दर संघर्ष अपनी ऊंचाइयों को छूते हुए दौलत शौहरत को अपने मुट्ठी में किया। बस कर न पाया अपने जज्बातों को अपने काबू में। एक मंजे हुए युवा की यह कहानी हर उस नॉरमल युवा को यह सोचने पर मजबूर कर गई कि आखिर क्या चाहिए था उसे? आखिर सब कुछ होने के बाद भी क्या शेष रह गया था जिसने उसकी जान ही ले ली?? या ऐसी कौनसी परेशानी या परिस्थतिया बन गई जिनका समाधान सिर्फ मौत ही लगा। चकाचौंध की दुनिया का वह मोहरा नहीं जानता था कि उस चमकती दुनिया में भी कई अन्धेरे कोने ऐसे होते हैं, जहाँ का घोर अन्धेरा किसी को दिखाई नही देता और उस घोर अन्धेरे कोने मे , कोई हाथ नहीं मिलता, जो उसके गिरते मनोबल को उठाकर जिंदगी की खूबसूरती को दिखला पाएं, या वापस उजाले की और दखेल पाए.. सुशांत सिंह राजपूत जैसे कलाकार की मौत ने हर युवा को अंदर तक खंगाल के रख दिया, सोचने पर मजबूर कर दिया कि हमारी युवा पीढ़ी किस ओर बढ़ रही है। डिप्रेशन( अवसाद), परेशानी, सामाजिक तनाव, रिश्तो का कच्चापन, स्वास्थ्य, नौकरी का दबाव, कार्यक्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन, सामाजिक प्रतिष्ठा का दबाव, पारिवारिक दबाव इत्यादि क्या यही सुसाइड के कारण माने जा सकते हैं? देशभर में बच्चों से लेकर युवा, बेरोजगार से लेकर नौकरी पेशा, दौलत एवं शोहरत के धनियो को भी आत्महत्या करते देखा गया है। सबसे पहले मैं उन बच्चों किशोरों पर चर्चा करना चाहूंगी जो आए दिन पढ़ाई के बोझ तले अपने आप को खत्म कर लेते हैं। कोटा (राजस्थान) इसका बेहतरीन उदाहरण है जहां हर साल आत्महत्या की कहानियां सुनने को मिलती हैं। कारणों का जब पता लगाया जाता है तो यही बात निकल कर आती है डिप्रेशन, टेंशन, मानसिक अवसाद, फेल होने का डर परिवार का दबाव। सफलता ने कुछ लोगों को तो इस कदर आदत में ला खड़ा किया की असफलता का दूसरा नाम" मौत" घोषित कर दिया गया.. घरवालों को रिजल्ट चाहिए, हर हाल में चाहिए। वह यह नहीं सोचते कि एक रिजल्ट से क्या वह जिंदगी बना देंगेउसकी ..क्या जीवन मृत्यु के सफर में केवल एक ही रिजल्ट चाहिए? ना जाने कितने बच्चों के जिंदगीनामा के रिजल्ट खत्म कर दिए उन मां बाप की थोथी लालसाओं ने.. ना जाने कितने बच्चों की जिंदगी छीन ली जबकि वे तो असल मायने में जिंदगी का मतलब जानते भी नहीं.. ।। इस तरह से एक युवा, आज का युवा ना जाने किस गली जा रहा है छोटे-छोटे शौक उसे इस कदर घेर लेते हैं कि वे आखिर में उसकी जिंदगी को खत्म करने पर उतारू हो जाते हैं। घर की जिम्मेदारियां, नौकरी का डर, रिशतो में समझौते आज इस कदर हावी हो गये कि युवा ड्रिंक, ड्रग्स लेने से जरा भी नहीं हिचकिचाते। कहीं-कहीं तो शौक के तौर पर इन्हें अपना लिया जाता है। हम जिस समाज में रहते हैं वहां जिम्मेदारियां उठाना, रिश्तों में समझौते, कर्तव्य पालना जैसे पहलु बचपन में सिखा दिए जाते हैं बचपन से ही इस तरह की तालीम हमें दी जाती है कि कुछ भी हो जाए हमें हर हाल, हर परिस्थिति हर विपदा में डटे रहना है और आगे बढ़ना हैं। ऎसे मूल्यों का बीजारोपण हमें सशक्त बनाता है कमजोर नहीं लेकिन आज का युवा इन्हें भुलाकर स्वयं पथभ्रष्ट हो जाता है वह जिंदगी जीने के लिए भौतिकवाद की और अग्रसर होने लगता है और फलतः वो खुशी की तलाश में नए नए फंडे अपनाता है जो कहीं ना कहीं सुसाइड जैसे कृत्यों के आधार बनते हैं। कभी किसान तो कभी बड़े-बड़े ऑफिसर भी इस तरह का घोर अपराध कर बैठते हैं। सब का कारण ढूंढा जाए तो भावनात्मक बुद्धि की कमी., दूसरों से अधिक अपेक्षा, स्वयं के सामर्थ्य से अधिक कार्य, दबाव, सहनशीलता की कमी, समय रहते स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर ध्यान न देना, समय का कुप्रबंधन, रिश्तो में अविश्वास, औपचारिकता एवं दिखावा, सफलता की चाहत, अपनों से दूरी एवं सोशल मीडिया की दुनिया में खोए रहना आदि है। मैंने एक शक्स का ऐसा दौर देखा जहां चारों तरफ अंधेरा था दूर-दूर तक कोई रोशनी की किरण नहीं..अपनो से अलगाव, पारिवारिक और सामाजिक दबाव, करियर की चिंता, बच्चों से संबंधित समस्या, ऊपर से कोर्ट कचहरी जैसी समस्त समस्याएं और साथ में आर्थिक हालातों ने तो जैसे एकदम पटरी पर ला खड़ा किया। चारों तरफ से छवि को धूमिल कर दिया गया लेकिन क्या उस शक्स को ऐसे में सुसाइड जैसे कदम उठाना चाहिए था? क्या जिंदगी की रेखा यहीं खत्म कर लेनी चाहिए थी..? नहीं... ये स्टेप कभी भी किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता था.. मैं जिस शक्स की बात कर रही हूं हम जैसे युवाओं में से ही एक था बस समझदारी उसकी यह रही कि बढ़ते दबाव एवं समस्याओं को अच्छे एवं समझदार दोस्तों संग शेयर कर हल किया, दूसरों से अपेक्षा खत्म कर खुद से अपेक्षा करते हुए लाइफ को सकारात्मक पटरी पर चलाना शुरू किया, स्वयं ने खुद की जिम्मेदारियां उठाते हुए एक समस्या के अनेक विकल्प तैयार किये, अपने आप को मोटिवेट करते हुए जिंदगी को बहुत खूबसूरती के साथ निहारा,नकारात्मक लोगों और विचारों से दूरी बनायी, लोगों की परवाह ना करते हुए खुद की परवाह करनी शुरू की, सफलता और असफलता में अंतर खत्म कर जिंदगी को जिंदगी समझना शुरू किया, हर उस छोटे बड़े पल में खुशी ढूंढते हुए मुस्कुराना आदत में ला खड़ा किया, लोगों को नजरअंदाज कर खुद के नक्शे कदम जिंदगी को जीना शुरु किया, अच्छे बुरे सबसे कुछ ना कुछ सीखा अप्लाई अपनी जरूरतों के अनुसार किया। मेडिटेशन, भगवान में आस्था, प्रकृति लगाव , खुद पर विश्वास ने उस दौर को हरा दिया और ऐसे ही एक युवा ने अपनी जिंदगी बचा आत्महत्या जैसी दुर्भावना को सदा के लिए मिटा दिया।। तो क्यों ना हर युवा को, हर मां बाप अपने बच्चों को यह सब सिखाए की जिंदगी से डील नहीं , मौत से कैसे डील करनी है। शायद यही सब कुछ अपना कर हम बहुत से लोगों की जिंदगी बचा सकते हैं। हमें आत्महत्या करने वालों के साथ कभी भी खडा नही होना चाहिए भले ही वह अपने किरदारों से हमें रिझाए। एक सफल आदमी बनने के बजाय इंसान बनने व गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित करना होगा। हमें भविष्य मे होने वाली इस महामारी को भांपते हुए आज के बच्चों, युवाओं को इस जिन्दगी खत्म कर देने वाली ट्रक पर जाने से रोकना ही होगा। एक मजबूत हाथ अपनों के लिए सदैव रखना होगा। खुद पर विश्वास करना ही होगा।।
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