वो गलियां जिसमे बचपन बीता l वो गलियां जिसमे दोस्तों से जीना सीखा ll वो गलियां जिसमे खपरैल के घरों से गिरते बारिश के पानी से नहाया l मौजों की टोली के साथ उस दिन को यादो की बारात से सजाया ll गांव की पगडंडिया थी और पुराने साईकिल की सवारी l पीछे पीछे बच्चों की उन्मुक्त टोली और हमारी होशियारी ll बुजुर्गो के स्थायी भाव और गोल घेरे मे हुक्का था l ये सब देख हम सारे बच्चों का दिल हक्का -बक्का था ll चाची और बहनो का गोबर से सना हाथ था l जगह -जगह गलियों की दीवारों पर उपलों का ठाठ था ll जाड़े के दिनों मे गोल आग के घेरे मे छोटे से बड़ो का जमावड़ा था l कभी किसी का हाथ सिक रहा था तो कभी पिछवाड़ा था ll कभी किसी की बारात आयी तो सब बैठे गए पत्तल पे खाने l कोई कहे पूड़ी और दही से तुझे अभी और हैं खाली पेट को आजमाने ll गाँव और उसकी गलियां ही तो हमारी पहचान हैं l हम भले कही बस जाये पर मूल मे तो यही हमारी शान हैं ll
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