छाए थे बदरा इंद्रप्रस्थ के आसमान में हाथो में कंगन और झुमका पहना था तुमने कान में बैचैन सी टहल रही थी तुम मेरे इंतज़ार में तभी बारिश का झोंका आया और तुमने थाम लिया था हाथ मेरा , चूम लिया था माथा मेरा उस बंद मकान में। आज फिर चल पड़ा यादों का सिलसिला पुरवाइयों के संग जब बरसती बूंदों में रोम रोम में बस गई थी तुम्हारी सांसो की गंध। मगर मिलकर भी तुमसे मिलन बाकी रहा पिला न सका मय तुमको मै कैसा साकी रहा समंदर में मिलना दरिया की फितरत है इक दिन बहा लूंगा तुझे अपनी मौजों के संग मेरा ये वादा तुमसे बाकी रहा
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