सोए हुए मेरे ख्वाबों में आ गया कोई मुद्दतों बाद मेरे जज़्बातों को जगा गया कोई। डूबे हैं कई बेगुनाह दरिया -ए- हयात में बहर-ए-तलातुम में भी किनारा पा गया कोई। भूख से हलकान है मजलूम तिरे आतिश-ए-शहर में गुर्बत में हक का निवाला भी खा गया कोई । घरों में कैद है जिंदगी फिज़ाओं में पसरा है सन्नाटा अकड़ना छोड़ दे अब, तेरी औकात बता गया कोई। ख़ामोश हैं बुत तो तानकर चादर सो गया खुदा भी मंजर -ए -तबाही में अपना ईमान दिखा गया कोई । यूं तो मोजूं है अर्श पे तिरे कदम-ए-मर्दुम-ए-कामिल मगर दिखाकर रुतबा , तेरी हस्ती मिटा गया कोई । वक्त-ए-अज़ल पर यह कैसा मंजर है ए- खुदा जिंदा आदमी का गोश्त जानवर खा गया कोई । टूटे हैं हौंसले मगर ख्वाहिशें जिंदा रख -ए-"योगी" दहश़त- ए - दश्त़ में भी रास्ता दिखा गया कोई l
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