निशा के मध्य प्रहर में दरवाजे की घंटी बजी किसी अनहोनी की आशंका में धड़कन हृदय की बढ़ने लगी कंपकंपाते हाथों से जब खोला दरवाजे का कुंडा तो सामने खड़ा था मेरे कृषकाय काला सा बूढ़ा लाठी का सहारा लिए मुझे वो रैबारी सा लगा क्षुधा मिटाने निकला असहाय भिखारी सा लगा लंगोटी बांधे पर धड था नंगा उभाने पैर कंधे पर था एक गमछा टंगा धकियाते मुझे अन्दर घुसा बड़बड़ाते मुझे हड़काने लगा क्या मखमली गद्दों पर सोने शहर आए थे भूल गए तुमने भी बचपन में ढोर चराए थे छप्पर की छान टप टप टपकती थी ढह न जाएं मिट्टी की दीवारें कहीं इस चिंता में सारी रात गुजरती थी भले ही पढ़ न पाई तेरी मातृजाया पर तुम्हे तो पढ़ाया था बेचकर गहने मां ने मातृधर्म निभाया था खानी पड़ी थी ठोकरें पिता को भरने तुम्हारा उदर चबाने पड़े थे चने ताकि जीवन जाए तेरा सुधर भूल गया तू गरीबी से तिल .. तिल ... मरता.. था घुप्प अंधेरी रातों में घासलेट के दीए से पढ़ता था माना कि निज परिश्रम से पाया... है .....तुमने.... यह.. . मुकाम पर तू "मै" में समा गया फिर कौन करेगा निर्धन वंचितों के काम वातानुकूलित भवन में तू बन गया मूढ़ लिखने लगा मादक तन की बातें गूढ़ मैंने ऊंची आवाज में पूछा तुम हो कौन मुझे समझाने वाले बिना बुलाए मेहमान बनके मुझे मीठी नींद से जगाने वाले प्रत्युतर में उसने झिड़काया रे" ! मूर्ख मै हूं "बाबा" बाबा.......... हां तुम्हारा बाबा पर मेरे बाबा तो मर गए भवसागर से तर गए हां मै तन से बेशक मर गया मगर जिंदा हूं किसान की भूखी आंतडियों में श्रमिक की कुदाल और फावडियों में मेरा बचा हुआ काम अब तुम्हे करना है लोकतंत्र में उग आए जाती धर्म और क्षेत्रवाद को जड़ ..से... खत्म... करना.. है फिर लाठी टेकते टेकते वो चले गए गहरी कंदराओं में गिरने से मुझे बचा गए कलम चलने लगी होने लगा सृजन भ्रम मिटने लगा सुलझ गई उलझन जगाने आए थे मुझे स्वयं बाबा नागार्जुन ।
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